शहीद दिवस की संध्या में गांधी तुम्हें ज़िंदा रहना होगा - दिनकर 'सजल'
आजादी के बाद से ही देश में एक वर्ग ऐसा रहा जो गांधी को गलत साबित करने में षडयंत्र पूर्वक जुटा हुआ है। ठीक उसी तरह जैसे योजनाबद्ध तरीके से गांधी को राष्ट्र पिता बनाने की मुहिम चलाई गई थी। खास बात स्वयं गांधी की इसमें सहमति और असहमति कभी शामिल ही नहीं की गई।
आपने 'ओ माई गाड' फिल्म जरूर देखी होगी। ज़िसमें अंतिम चरण में तथाकथित धार्मिक अभक्त-भक्त नायक के विरोधी उसके मरते ही प्रतिमा बनाकर नया धंधा शुरु कर देते है। यह वर्ग हमेशा से रहा है और शायद बना भी रहेगा। यह भीड़ का हिस्सा अनाशवान रहा है।
गौतम बुद्ध जीवनभर मूर्ति पूजा के विरोधी रहे या लोगों को मूर्ति से निकालकर जीवंत करने में जुटे रहे, लेकिन संसार से उनके विदा होते ही अभक्तों ने सबसे पहले बुद्ध की ही प्रतिमा बना डाली।
गांधी को समझने के लिए उनकी आत्मकथा को जरूर पढ़ना चाहिए। वे स्वयं को हमेशा हाड़-मांस का पुतला ही मानते थे। लेकिन गांधी की हत्या के बाद तात्कालीन गांधी से सहमत और असहमत वर्ग ने अपनी-अपनी दुकान और ग्राहक संख्या बढ़ाना शुरु कर दी। इक्कीसवी सदी में गांधी से असहमत वर्ग ने गांधी को दूसरी बार मारने की मुहिम शुरु कर दी है। अब तो उनकी संख्या सहमत वर्ग से ज्यादा होती दिख रही है। इस मुहिम का अंत क्या होगा, पता नहीं है। लेकिन इतना जरूर कहूंगा कोई भी गांधी को गांधी के नजरिए से समझना नहीं चाहता है। ऐसा नहीं है कि गांधी के जीते जी उनके विचारों से असहमत लोग न रहे हो। नेताजी सुभाष और अम्बेडकर जैसे महानायक भी असहमत थे, लेकिन इनकी भी गांधी की तरह लोकतंत्रात्मक विचारधारा में आस्था थी। यदि भगत सिंह जैसा युवा जीवित रहता तो गांधी से असहमत ही रहता लेकिन सभी ने कभी भी असहमति का झंडा तानाशाही पद्धति हठधर्मिता से नहीं थामा न ही वे ऐसा करते।
गांधी आधुनिक युग में लोकतंत्र हासिल करने का एक प्रयोग भर था। जिसमें 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' का आदर्श सियासत की जमी पर पहली बार अपनाया गया था। प्रयोग कितना सफल हुआ, किस हद तक सफल या असफल हुआ, विवेचना का मसला हो सकता है। किसी भी लोकतंत्रात्मक देश में विवेचना आवश्यक भी है। लेकिन आज या गांधी की हत्या के बाद जिस तरीके से एक आंख के नैनसुख लोग ही अंधों को राह दिखा रहे है। निश्चित ही गांधी विरोध के नाम पर पूरे समाज को अशिक्षित और अंधा देखना चाहते है। एक सभ्य और विवेकशील समाज में खास विचारधारा रखने की आजादी आवश्यक है, वहीं दूसरी विचारधारा को प्रकट होने की आजादी दिया जाना हितकारी है। भाषा की मर्यादा जरुरी है, साथ ही बड़ा दिल रखने की भी जरुरत है। अब जवाब देने के लिए अतीत के महापुरुष तो ज़िंदा हैं नहीं। उनके पक्ष और विपक्षी विचारधाराओं में लट्ठम-लट्ठा करना, विचारों की गुत्थम-गुत्था लोकतंत्र के लिए शुभकर नहीं है।
ऐसे में अतीत से सबक सीखकर वर्तमान पीढ़ी और विश्व के अनुकूल भविष्य की चिंता करनी होगी। न कृष्ण के अनुकूल कृष्ण भक्त है, न ही बुद्ध के मज्झिम मार्ग पर बुद्धिस्ट। न कबीर पंथी प्रेम का ढाई आखर सीख पाए है, न ही गांधीवादी गांधी को समझ पाए है। वक्त सिर्फ इतना कह रहा है, मैं अभी हूं, अभी सभी के समान कल्याण के लिए जीना है और सभी को जीने का अवसर देकर।