’प्रकृति के सुकोमल कवि’, सुमित्रानंदन की कुछ कविताएं, जो आपको स्कूल के दिनों की याद दिला देंगी
प्रकृति के प्रति प्रेम को व्यक्त करना, मैंने सुमित्रानंदन पंत से ही सीखा था. आज भी याद है, छठी कक्षा में बारिश को देखकर पहली कविता लिखी थी.
प्रकृति के सुकोमल कवि का जन्म देवभूमि उत्तराखंड के कौसानी ज़िले में 20 मई 1900 को हुआ. जन्म के कुछ ही घंटों के बाद उनकी मां की मृत्यु हो गई. दादी ने उन्हें पाल-पोसकर बड़ा किया.
उनकी प्रारंभिक पढ़ाई कौसानी में ही हुई. इसके बाद शिक्षा के लिए वो काशी और इलाहाबाद गए. 1921 में इंटरमीडिएट की परिक्षा से पहले ही असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए और इसके बाद पढ़ाई नहीं हो पाई.
उत्तराखंड में जन्म होने के कारण शायद पंत जी का प्रकृति से अलग ही लगाव था. ऊंची पहाड़ियां, घने जंगल का चित्रण कई बार उनकी कविताओं में मिलता है.
वीणा, ग्रंथि, पल्लव, ग्राम्या जैसी मशहूर कविताएं लिखने वाले पंत जी ने 'हार' उपन्यास और 'पांच कहानियां' कहानी संग्रह भी लिखी थी.
आज पढ़िए पंत जी की कुछ रचनाएं-
पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश.
मेखलाकार पर्वत आपार
अपने सहस्र दृग-सुमन फाड़,
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में निज महाकार,
-जिसके चरणों में पला ताल
दर्पण-सा फैला है विशाल!
गिरि का गौरव गाकर झर-झर
मद में नस-नस उत्तेजित कर
मोती की लड़ियों-से सुंदर
झरते हैं झाग भरे निर्झर!
गिरिवर के उर से उठ-उठ कर
उच्चाकांक्षाओं से तरुवर
हैं झांक रहे नीरव नभ पर
अनिमेष, अटल, कुछ चिंतापर.
उड़ गया, अचानक लो, भूधर
फड़का अपार पारद के पर!
रव-शेष रह गए हैं निर्झर!
है टूट पड़ा भू पर अंबर!
धंस गए धरा में सभय शाल!
उठ रहा धुआं, जल गया ताल!
-यों जलद-यान में विचर-विचर
था इंद्र खेलता इंद्रजाल.
जीने का हो सदुपयोग, यह मनुज धर्म है.
अपने ही में रहना, एक प्रबुद्ध कला है,
जग के हित रहने में, सबका सहज भला है.
जग का प्यार मिले, जन्मों के पुण्य चाहिए,
जग जीवन को, प्रेम सिन्धु में डूब थाहिए.
ज्ञानी बनकर, मत नीरस उपदेश दीजिए,
लोक कर्म भव सत्य, प्रथम सत्कर्म कीजिए.
वह सरल, विरल, काली रेखा
तम के तागे सी जो हिल-डुल,
चलती लघु पद पल-पल मिल-जुल,
यह है पिपीलिका पांति! देखो ना, किस भांति
काम करती वह सतत, कन-कन कनके चुनती अविरत.
गाय चराती, धूप खिलाती,
बच्चों की निगरानी करती
लड़ती, अरि से तनिक न डरती,
दल के दल सेना संवारती,
घर-आंगन, जनपथ बुहारती.
चींटी है प्राणी सामाजिक,
वह श्रमजीवी, वह सुनागरिक.
देखा चींटी को?
उसके जी को?
भूरे बालों की सी कतरन,
छुपा नहीं उसका छोटापन,
वह समस्त पृथ्वी पर निर्भर
विचरण करती, श्रम में तन्मय
वह जीवन की तिनगी अक्षय.
वह भी क्या देही है, तिल-सी?
प्राणों की रिलमिल झिलमिल-सी.
दिनभर में वह मीलों चलती,
अथक कार्य से कभी न टलती.
सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे,
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी
और फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूंगा!
पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,
बन्ध्या मिट्टी नें न एक भी पैसा उगला!-
सपने जाने कहां मिटे, कब धूल हो गये!
मैं हताश हो बाट जोहता रहा दिनों तक
बाल-कल्पना के अपलर पांवडडे बिछाकर
मैं अबोध था, मैंने गलत बीज बोये थे,
ममता को रोपा था, तृष्णा को सींचा था!
अर्द्धशती हहराती निकल गयी है तब से!
कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने,
ग्रीष्म तपे, वर्षा झूली, शरदें मुसकाई;
सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे, खिले वन!
औ\' जब फिर से गाढ़ी, ऊदी लालसा लिये
गहरे, कजरारे बादल बरसे धरती पर,
मैंने कौतूहल-वश आंगन के कोने की
गीली तह यों ही उंगली से सहलाकर
बीज सेम के दबा दिये मिट्टी के नीचे-
भू के अंचल में मणि-माणिक बांध दिये हो!
मैं फिर भूल गया इस छोटी-सी घटना को,
और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन!
किन्तु, एक दिन जब मैं सन्ध्या को आंगन में
टहल रहा था,- तब सहसा, मैने देखा
उसे हर्ष-विमूढ़ हो उठा मैं विस्मय से!
देखा-आंगन के कोने में कई नवागत
छोटे-छोटे छाता ताने खड़े हुए हैं!
छांता कहूं कि विजय पताकाएं जीवन की,
या हथेलियां खोले थे वे नन्हीं प्यारी-
जो भी हो, वे हरे-हरे उल्लास से भरे
पंख मारकर उड़ने को उत्सुक लगते थे-
डिम्ब तोड़कर निकले चिडियों के बच्चों से!
निर्निमेष, क्षण भर, मैं उनको रहा देखता-
सहसा मुझे स्मरण हो आया,-कुछ दिन पहिले
बीज सेम के मैने रोपे थे आंगन में,
और उन्हीं से बौने पौधो की यह पलटन
मेरी आंखों के सम्मुख अब खड़ी गर्व से,
नन्हें नाटे पैर पटक, बढती जाती है!
तब से उनको रहा देखता धीरे-धीरे
अनगिनती पत्तों से लद, भर गयी झाड़ियां,
हरे-भरे टंग गये कई मखमली चंदोवे!
बेलें फैल गयी बल खा, आंगन में लहरा,
और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का
हरे-हरे सौ झरने फूट पड़े ऊपर को,-
मैं अवाक् रह गया-वंश कैसे बढ़ता है!
छोटे तारों-से छितरे, फूलों के छीटे
झागों-से लिपटे लहरों श्यामल लतरों पर
सुन्दर लगते थे, मावस के हंसमुख नभ-से,
चोटी के मोती-से, आंचल के बूटों-से!
ओह, समय पर उनमें कितनी फलियां फूटी!
कितनी सारी फलियां, कितनी प्यारी फलियां,-
पतली चौड़ी फलियां! उफ उनकी क्या गिनती!
लम्बी-लम्बी अंगुलियों - सी नन्हीं-नन्हीं
तलवारों-सी पन्ने के प्यारे हारों-सी,
झूठ न समझे चन्द्र कलाओं-सी नित बढ़ती,
सच्चे मोती की लड़ियों-सी, ढेर-ढेर खिल
झुण्ड-झुण्ड झिलमिलकर कचपचिया तारों-सी!
आः इतनी फलियां टूटी, जाड़ो भर खाई,
सुबह शाम वे घर-घर पकीं, पड़ोस पास के
जाने-अनजाने सब लोगों में बंटबाई
बंधु-बांधवों, मित्रों, अभ्यागत, मंगतों ने
जी भर-भर दिन-रात महुल्ले भर ने खाई !-
कितनी सारी फलियां, कितनी प्यारी फलियां!
यह धरती कितना देती है! धरती माता
कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को!
नही समझ पाया था मैं उसके महत्व को,-
बचपन में छिः स्वार्थ लोभ वश पैसे बोकर!
रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूं।
इसमें सच्ची समता के दाने बोने है;
इसमें जन की क्षमता का दाने बोने है,
इसमें मानव-ममता के दाने बोने है,-
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें
मानवता की, - जीवन श्रम से हंसे दिशाएं-
हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे.
वह केसरी दुकूल अभी भी फहरा रहा क्षितिज पर, नव असाढ़ के मेघों से घिर रहा बराबर अंबर!
मैं बरामदे में लेटा, शैय्या पर, पीड़ित अवयव, मन का साथी बना बादलों का विषाद है नीरव!
सक्रिय यह सकरुण विषाद, मेघों से उमड़ उमड़ कर, भावी के बहु स्वप्न, भाव बहु व्यथित कर रहे अंतर!
मुखर विरह दादुर पुकारता उत्कंठित भेकी को, बर्हभार से मोर लुभाता मेघ-मुग्ध केकी को;
आलोकित हो उठता सुख से मेघों का नभ चंचल, अंतरतम में एक मधुर स्मृति जग जग उठती प्रतिपल!
कम्पित करता वक्ष धरा का घन गभीर गर्जन स्वर, भू पर ही आगया उतर शत धाराओं में अंबर!
भीनी भीनी भाप सहज ही सांसों में घुल मिल कर एक और भी मधुर गंध से हृदय दे रही है भर!
नव असाढ़ की संध्या में, मेघों के तम में कोमल, पीड़ित एकाकी शय्या पर, शत भावों से विह्वल,
एक मधुरतम स्मृति पल भर विद्युत सी जल कर उज्जवल, याद दिलाती मुझे हृदय में रहती जो तुम निश्चल!
उन आंखों से डरता है मन,
भरा दूर तक उनमें दारुण
दैन्य दुख का नीरव रोदन!
अह, अथाह नैराश्य, विवशता का
उनमें भीषण सूनापन,
मानव के पाशव पीड़न का
देतीं वे निर्मम विज्ञापन!
फूट रहा उनसे गहरा आतंक,
क्षोभ, शोषण, संशय, भ्रम,
डूब कालिमा में उनकी
कंपता मन, उनमें मरघट का तम!
ग्रस लेती दर्शक को वह
दुर्ज्ञेय, दया की भूखी चितवन,
झूल रहा उस छाया-पट में
युग युग का जर्जर जन जीवन!
वह स्वाधीन किसान रहा,
अभिमान भरा आंखों में इसका,
छोड़ उसे मंझधार आज
संसार कगार सदृश बह खिसका!
लहराते वे खेत दृगों में
हुया बेदख़ल वह अब जिनसे,
हंसती थी उनके जीवन की
हरियाली जिनके तृन तृन से!
आंखों ही में घूमा करता
वह उसकी आंखों का तारा,
कारकुनों की लाठी से जो
गया जवानी ही में मारा!
बिका दिया घर द्वार,
महाजन ने न ब्याज की कौड़ी छोड़ी,
रह रह आंखों में चुभती वह
कुर्क हुई बरधों की जोड़ी!
उजरी उसके सिवा किसे कब
पास दुहाने आने देती?
अह, आंखों में नाचा करती
उजड़ गई जो सुख की खेती!
बिना दवा दर्पन के घरनी
स्वरग चली,-आंखें आतीं भर,
देख रेख के बिना दुधमुंही
बिटिया दो दिन बाद गई मर!
घर में विधवा रही पतोहू,
लछमी थी, यद्यपि पति घातिन,
पकड़ मंगाया कोतवाल नें,
डूब कुंए में मरी एक दिन!
ख़ैर, पैर की जूती, जोरू
न सही एक, दूसरी आती,
पर जवान लड़के की सुध कर
सांप लोटते, फटती छाती!
पिछले सुख की स्मृति आंखों में
क्षण भर एक चमक है लाती,
तुरत शून्य में गड़ वह चितवन
तीखी नोक सदृश बन जाती.
मानव की चेतना न ममता
रहती तब आंखों में उस क्षण!
हर्ष, शोक, अपमान, ग्लानि,
दुख दैन्य न जीवन का आकर्षण!
उस अवचेतन क्षण में मानो
वे सुदूर करतीं अवलोकन
ज्योति तमस के परदों पर
युग जीवन के पट का परिवर्तन!
अंधकार की अतल गुहा सी
अह, उन आंखों से डरता मन,
वर्ग सभ्यता के मंदिर के
निचले तल की वे वातायन!
प्रकृति के सुकोमल कवि का जन्म देवभूमि उत्तराखंड के कौसानी ज़िले में 20 मई 1900 को हुआ. जन्म के कुछ ही घंटों के बाद उनकी मां की मृत्यु हो गई. दादी ने उन्हें पाल-पोसकर बड़ा किया.
उनकी प्रारंभिक पढ़ाई कौसानी में ही हुई. इसके बाद शिक्षा के लिए वो काशी और इलाहाबाद गए. 1921 में इंटरमीडिएट की परिक्षा से पहले ही असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए और इसके बाद पढ़ाई नहीं हो पाई.
उत्तराखंड में जन्म होने के कारण शायद पंत जी का प्रकृति से अलग ही लगाव था. ऊंची पहाड़ियां, घने जंगल का चित्रण कई बार उनकी कविताओं में मिलता है.
वीणा, ग्रंथि, पल्लव, ग्राम्या जैसी मशहूर कविताएं लिखने वाले पंत जी ने 'हार' उपन्यास और 'पांच कहानियां' कहानी संग्रह भी लिखी थी.
आज पढ़िए पंत जी की कुछ रचनाएं-
1. पर्वत प्रदेश में पावस
पावस ऋतु, पर्वत प्रदेश,पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश.
मेखलाकार पर्वत आपार
अपने सहस्र दृग-सुमन फाड़,
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में निज महाकार,
-जिसके चरणों में पला ताल
दर्पण-सा फैला है विशाल!
गिरि का गौरव गाकर झर-झर
मद में नस-नस उत्तेजित कर
मोती की लड़ियों-से सुंदर
झरते हैं झाग भरे निर्झर!
गिरिवर के उर से उठ-उठ कर
उच्चाकांक्षाओं से तरुवर
हैं झांक रहे नीरव नभ पर
अनिमेष, अटल, कुछ चिंतापर.
उड़ गया, अचानक लो, भूधर
फड़का अपार पारद के पर!
रव-शेष रह गए हैं निर्झर!
है टूट पड़ा भू पर अंबर!
धंस गए धरा में सभय शाल!
उठ रहा धुआं, जल गया ताल!
-यों जलद-यान में विचर-विचर
था इंद्र खेलता इंद्रजाल.
2. जीना अपने ही में
जीना अपने ही में एक महान् कर्म है,जीने का हो सदुपयोग, यह मनुज धर्म है.
अपने ही में रहना, एक प्रबुद्ध कला है,
जग के हित रहने में, सबका सहज भला है.
जग का प्यार मिले, जन्मों के पुण्य चाहिए,
जग जीवन को, प्रेम सिन्धु में डूब थाहिए.
ज्ञानी बनकर, मत नीरस उपदेश दीजिए,
लोक कर्म भव सत्य, प्रथम सत्कर्म कीजिए.
3. चींटी
चींटी को देखा?वह सरल, विरल, काली रेखा
तम के तागे सी जो हिल-डुल,
चलती लघु पद पल-पल मिल-जुल,
यह है पिपीलिका पांति! देखो ना, किस भांति
काम करती वह सतत, कन-कन कनके चुनती अविरत.
गाय चराती, धूप खिलाती,
बच्चों की निगरानी करती
लड़ती, अरि से तनिक न डरती,
दल के दल सेना संवारती,
घर-आंगन, जनपथ बुहारती.
चींटी है प्राणी सामाजिक,
वह श्रमजीवी, वह सुनागरिक.
देखा चींटी को?
उसके जी को?
भूरे बालों की सी कतरन,
छुपा नहीं उसका छोटापन,
वह समस्त पृथ्वी पर निर्भर
विचरण करती, श्रम में तन्मय
वह जीवन की तिनगी अक्षय.
वह भी क्या देही है, तिल-सी?
प्राणों की रिलमिल झिलमिल-सी.
दिनभर में वह मीलों चलती,
अथक कार्य से कभी न टलती.
4. यह धरती कितना देती है
मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे,सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे,
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी
और फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूंगा!
पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,
बन्ध्या मिट्टी नें न एक भी पैसा उगला!-
सपने जाने कहां मिटे, कब धूल हो गये!
मैं हताश हो बाट जोहता रहा दिनों तक
बाल-कल्पना के अपलर पांवडडे बिछाकर
मैं अबोध था, मैंने गलत बीज बोये थे,
ममता को रोपा था, तृष्णा को सींचा था!
अर्द्धशती हहराती निकल गयी है तब से!
कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने,
ग्रीष्म तपे, वर्षा झूली, शरदें मुसकाई;
सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे, खिले वन!
औ\' जब फिर से गाढ़ी, ऊदी लालसा लिये
गहरे, कजरारे बादल बरसे धरती पर,
मैंने कौतूहल-वश आंगन के कोने की
गीली तह यों ही उंगली से सहलाकर
बीज सेम के दबा दिये मिट्टी के नीचे-
भू के अंचल में मणि-माणिक बांध दिये हो!
मैं फिर भूल गया इस छोटी-सी घटना को,
और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन!
किन्तु, एक दिन जब मैं सन्ध्या को आंगन में
टहल रहा था,- तब सहसा, मैने देखा
उसे हर्ष-विमूढ़ हो उठा मैं विस्मय से!
देखा-आंगन के कोने में कई नवागत
छोटे-छोटे छाता ताने खड़े हुए हैं!
छांता कहूं कि विजय पताकाएं जीवन की,
या हथेलियां खोले थे वे नन्हीं प्यारी-
जो भी हो, वे हरे-हरे उल्लास से भरे
पंख मारकर उड़ने को उत्सुक लगते थे-
डिम्ब तोड़कर निकले चिडियों के बच्चों से!
निर्निमेष, क्षण भर, मैं उनको रहा देखता-
सहसा मुझे स्मरण हो आया,-कुछ दिन पहिले
बीज सेम के मैने रोपे थे आंगन में,
और उन्हीं से बौने पौधो की यह पलटन
मेरी आंखों के सम्मुख अब खड़ी गर्व से,
नन्हें नाटे पैर पटक, बढती जाती है!
तब से उनको रहा देखता धीरे-धीरे
अनगिनती पत्तों से लद, भर गयी झाड़ियां,
हरे-भरे टंग गये कई मखमली चंदोवे!
बेलें फैल गयी बल खा, आंगन में लहरा,
और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का
हरे-हरे सौ झरने फूट पड़े ऊपर को,-
मैं अवाक् रह गया-वंश कैसे बढ़ता है!
छोटे तारों-से छितरे, फूलों के छीटे
झागों-से लिपटे लहरों श्यामल लतरों पर
सुन्दर लगते थे, मावस के हंसमुख नभ-से,
चोटी के मोती-से, आंचल के बूटों-से!
ओह, समय पर उनमें कितनी फलियां फूटी!
कितनी सारी फलियां, कितनी प्यारी फलियां,-
पतली चौड़ी फलियां! उफ उनकी क्या गिनती!
लम्बी-लम्बी अंगुलियों - सी नन्हीं-नन्हीं
तलवारों-सी पन्ने के प्यारे हारों-सी,
झूठ न समझे चन्द्र कलाओं-सी नित बढ़ती,
सच्चे मोती की लड़ियों-सी, ढेर-ढेर खिल
झुण्ड-झुण्ड झिलमिलकर कचपचिया तारों-सी!
आः इतनी फलियां टूटी, जाड़ो भर खाई,
सुबह शाम वे घर-घर पकीं, पड़ोस पास के
जाने-अनजाने सब लोगों में बंटबाई
बंधु-बांधवों, मित्रों, अभ्यागत, मंगतों ने
जी भर-भर दिन-रात महुल्ले भर ने खाई !-
कितनी सारी फलियां, कितनी प्यारी फलियां!
यह धरती कितना देती है! धरती माता
कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को!
नही समझ पाया था मैं उसके महत्व को,-
बचपन में छिः स्वार्थ लोभ वश पैसे बोकर!
रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूं।
इसमें सच्ची समता के दाने बोने है;
इसमें जन की क्षमता का दाने बोने है,
इसमें मानव-ममता के दाने बोने है,-
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें
मानवता की, - जीवन श्रम से हंसे दिशाएं-
हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे.
5. याद
बिदा हो गई सांझ, विनत मुख पर झीना आंचल धर, मेरे एकाकी आंगन में मौन मधुर स्मृतियां भर!वह केसरी दुकूल अभी भी फहरा रहा क्षितिज पर, नव असाढ़ के मेघों से घिर रहा बराबर अंबर!
मैं बरामदे में लेटा, शैय्या पर, पीड़ित अवयव, मन का साथी बना बादलों का विषाद है नीरव!
सक्रिय यह सकरुण विषाद, मेघों से उमड़ उमड़ कर, भावी के बहु स्वप्न, भाव बहु व्यथित कर रहे अंतर!
मुखर विरह दादुर पुकारता उत्कंठित भेकी को, बर्हभार से मोर लुभाता मेघ-मुग्ध केकी को;
आलोकित हो उठता सुख से मेघों का नभ चंचल, अंतरतम में एक मधुर स्मृति जग जग उठती प्रतिपल!
कम्पित करता वक्ष धरा का घन गभीर गर्जन स्वर, भू पर ही आगया उतर शत धाराओं में अंबर!
भीनी भीनी भाप सहज ही सांसों में घुल मिल कर एक और भी मधुर गंध से हृदय दे रही है भर!
नव असाढ़ की संध्या में, मेघों के तम में कोमल, पीड़ित एकाकी शय्या पर, शत भावों से विह्वल,
एक मधुरतम स्मृति पल भर विद्युत सी जल कर उज्जवल, याद दिलाती मुझे हृदय में रहती जो तुम निश्चल!
6. वे आंखे
अंधकार की गुहा सरीखीउन आंखों से डरता है मन,
भरा दूर तक उनमें दारुण
दैन्य दुख का नीरव रोदन!
अह, अथाह नैराश्य, विवशता का
उनमें भीषण सूनापन,
मानव के पाशव पीड़न का
देतीं वे निर्मम विज्ञापन!
फूट रहा उनसे गहरा आतंक,
क्षोभ, शोषण, संशय, भ्रम,
डूब कालिमा में उनकी
कंपता मन, उनमें मरघट का तम!
ग्रस लेती दर्शक को वह
दुर्ज्ञेय, दया की भूखी चितवन,
झूल रहा उस छाया-पट में
युग युग का जर्जर जन जीवन!
वह स्वाधीन किसान रहा,
अभिमान भरा आंखों में इसका,
छोड़ उसे मंझधार आज
संसार कगार सदृश बह खिसका!
लहराते वे खेत दृगों में
हुया बेदख़ल वह अब जिनसे,
हंसती थी उनके जीवन की
हरियाली जिनके तृन तृन से!
आंखों ही में घूमा करता
वह उसकी आंखों का तारा,
कारकुनों की लाठी से जो
गया जवानी ही में मारा!
बिका दिया घर द्वार,
महाजन ने न ब्याज की कौड़ी छोड़ी,
रह रह आंखों में चुभती वह
कुर्क हुई बरधों की जोड़ी!
उजरी उसके सिवा किसे कब
पास दुहाने आने देती?
अह, आंखों में नाचा करती
उजड़ गई जो सुख की खेती!
बिना दवा दर्पन के घरनी
स्वरग चली,-आंखें आतीं भर,
देख रेख के बिना दुधमुंही
बिटिया दो दिन बाद गई मर!
घर में विधवा रही पतोहू,
लछमी थी, यद्यपि पति घातिन,
पकड़ मंगाया कोतवाल नें,
डूब कुंए में मरी एक दिन!
ख़ैर, पैर की जूती, जोरू
न सही एक, दूसरी आती,
पर जवान लड़के की सुध कर
सांप लोटते, फटती छाती!
पिछले सुख की स्मृति आंखों में
क्षण भर एक चमक है लाती,
तुरत शून्य में गड़ वह चितवन
तीखी नोक सदृश बन जाती.
मानव की चेतना न ममता
रहती तब आंखों में उस क्षण!
हर्ष, शोक, अपमान, ग्लानि,
दुख दैन्य न जीवन का आकर्षण!
उस अवचेतन क्षण में मानो
वे सुदूर करतीं अवलोकन
ज्योति तमस के परदों पर
युग जीवन के पट का परिवर्तन!
अंधकार की अतल गुहा सी
अह, उन आंखों से डरता मन,
वर्ग सभ्यता के मंदिर के
निचले तल की वे वातायन!